Poems for Children

Cake ki kahaani

केक बनाया मम्मी ने तो टपकी लार हमारी,
नज़रें घूमें स्टोर की तरफ बार- बार हमारी.
स्कूल से लौटे, दरवाज़े पर खुशबू ने आ घेरा,
जैसे पेस्ट्री शॉप ने नाक में लगा दिया हो डेरा.
झटपट हाथ धो पहुंचे टेबल पर टपकाते लार,
बेसब्री से कर रहे थे हम केक का इंतज़ार.
पर यह क्या? मम्मी तो लायी रोटी और तरकारी:
हाय मिटटी में मिला दी सब उम्मीद हमारी!
‘केक कहाँ है?’ हम चिल्लाए, ‘चुप हो!’ वह गुर्रायीं;
शाम की चाय पर आ रहे हैं मेरे दूर के भाई.
तब तक बैठो चुपचाप, क्योंकि केक तभी कटेगा;
उससे पहले यहाँ कोई फटका तो बहुत पिटेगा.
चले गए हम मुंह लटकाकर, बैठे आस लगाए,
जल्दी से आयें मामाजी, चाय पियें और जाएँ!
आ पहुंचे मेहमान तो निकली केक की सवारी;
देखि उसकी मस्त छटा तो लपकी जीभ हमारी.
‘मेहमानों से पहले, खबरदार जो हाथ लगाया’;
दबी ज़बान में मम्मी ने यह सख्ती से समझाया.
रह गए हम देखते, मामा के बेटे ने झपटा मारा,
‘कितना स्वादिष्ट है’, कह कर चट कर गया केक वह सारा!

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Indian Monsoon

 

Swirling grey clouds across the sky,

Rumbling, grumbling, ready to burst;

Tumbling, fumbling like eager children,

Pushing, shoving, to get there first.

 

Dodging around the mountain peaks,

Trailing misty fingers across the slopes;

Racing to reach the valleys below

To dress them up in fresh green clothes.

 

And then, from there, they rush onwards

To the dried, musty, thirsty plains;

Announce themselves with thunderclaps

And quench their Summer thirst with rains.

 

They fill the crops in the fields with grain,

And make the farmers sing with glee,

And the peacocks dance, and the rabbits prance,

And all Nature laughs merrily.

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School Daze …

another in the ‘Humour for Kids’ series …

What shall we do, oh! what shall we do!
Civics is so boring, and History too!
Dead kings and generals haunt us with their ‘noble’ deeds;
Ordinances and legislations sprout like so many weeds!

Grammar, with its rules and regulations so tough:
However much you cram, it’s never enough!
Who cares if nouns are proper or improper?
Gerunds and infinitives make me come a cropper!

The Americas and Africa; Europe and Asia:
Bending over maps could cause osteomalacia!
The mountains and rivers seem to mock at me —
Yes, Geography is something from which I flee!

Physics experiments — I can never get them right
While numericals are enough to make me take flight!
Chemicals are dangerous — they should never be allowed,
Bio specimens in formalin leave me grossed out and cowed!

Sanskrit, with its distinctions between I and me
Is dead as a Dodo — why not let it be?
While France, Germany, Mexico and Spain
Would be good to visit, the language is a pain!

Computers are the most wonderful means of recreation:
But flow-charts and processes only cause aggravation!
Phys-ed and Library are okay, I suppose;
But crafts and arts my unhandiness expose!

The biggest puzzle, however, is, in spite of these frights
School life manages to be full of delights!

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ऊपर वाले की माया

खत्म हो गया होमवर्क मेरा, समय खेलने का आया;
‘बैग लगा लो, जूते पोलिश करो,’ मम्मी ने फ़रमाया।

‘फल और दूध तैयार रखे हैं, खा पीकर के फिर जाना;
कहाँ जा रही हो, यह बता दो, रात से पहले लौट आना।’

उफ़्फ़! मम्मी को बता चुकी हूँ, पच्चीस बार अपना शिड्यूल;
बार-बार फिर भी पूछेंगी, जाने कैसे जाती भूल!

अबकि फिर से बता रही हूँ, सुन लो प्लीज़् देकर ध्यान;
पार्क नही जाते हैं क्योंकि मच्छर ले लेते हैं जान!

हर दिन अलग-अलग घर में सब साथी खेलने जाते हैं;
सभी के घर हफ्ते में एक-एक दिन डेरा जमाते हैं.

‘बहुत सही है,’ बोली मम्मी, ‘यह तो मैंने माना है’;
‘पर यह कैसे तय करते हो, कब किसके घर जाना है?’

‘यह तो ऊपर वाले पर निर्भर है,’ मैंने खोला राज़;
पहुंचे हमारी टोली जहां पूजा, अरदास या हो नमाज़!’

सुन मम्मी को हुआ अचम्भा, और उनका सर चकराया;
देख के उनकी हैरानी फिर मैंने खुल के समझाया.

‘जैसे सोमवार को आप शिवजी पर जल चढ़ाती हो;
खीर बनाती हो, हमारी मंडली को भी खिलाती हो.’

‘मंगलवार रिंकी के पापा हनुमान व्रत रखते हैं;
वहीं खेलते हैं हम सब भी, मीठी बूंदी चखते हैं.’

‘बुधवार राजू की दादी गणपति का भोग लगाती हैं,
बहुत स्वाद लड्डू चढ़ते हैं, हमें ज़रूर खिलाती हैं.’

‘बृहस्पती को शीतल के घर साईं पूजा करते हैं;
फिर मिश्री, इलायची, मेवे से सब मुट्ठी भरते हैं.’

‘शुक्रवार फैसल के घर जुम्मे की नमाज़ पढी जाती;
फिर आंटी हमको प्यार से लज़ीज़ बिरयानी हैं खिलाती.’

‘शनिवार को अमनप्रीत की बीजी गुरद्वारे जाती हैं;
हमें भी मिलते खट्टे चने और कड़ा प्रसाद जो चढ़ाती हैं.’

‘और रविवार को सन्डे मास से आकर मार्गरेट की मम्मी
जो पैनकेक्स खिलाती हैं, वो होते हैं कितने यम्मी!’

हंस-हंस कर तब लोटपोट हुईं मम्मी, बोलीं ‘वाह उस्ताद!’
‘पर चलो, इसी बहाने ऊपर वाले को करते हो याद!’

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बदलते रंग

रंगीन फूलों में
पार्क के झूलों में
बीता था बचपन हमारा;
पर फूलों की खुशबू से
गीतों के जादू से
दूर ज़िंदगी ने पुकारा.

मोटी किताबों ने
जूते-जुराबों ने
टाई-बेल्ट ने सपने बांधे;
भारी से बस्तों से
स्कूल के रस्तों पे
दुखते हैं नन्हे से काँधे.

नीले गगन में जो
उड़ते परिंदे तो
अपनी भी नज़रें ललचायीं
‘चुपचाप पढ़ लो
यह सब याद कर लो’,
फिर पापा ने डांट लगाई.

‘जो न पढोगे
तो कैसे बढोगे
फिर कैसे करोगे तरक्की?
अगर कुछ भी पाना है,
जीवन सजाना है,
तो भैया, मेहनत है पक्की.’

नंबर तो अच्छे हैं,
पर हम जिनके बच्चे हैं
वो फिर भी ख़ुश तो नहीं हैं;
एक नंबर कटता है
तो वो भी खटकता है
हर वक़्त रहती कमी है.

ए.सी. लगाया,
कम्प्यूटर सजाया,
कोचिंग क्लासिज़ का है रेला;
पर न कोई खेल है,
न किसी से मेल है:
लगता है हरदम अकेला.

फिर इक सुबह आयी
जब हमने थी पायी
सोशल नेट्वर्किंग की दुनिया;
दोस्त मिले जी भर के,
साथी ज़िंदगी भर के:
लौट आयीं जीवन में खुशियाँ!

अब फार्मविल के फूलों में
सिटिविल के झूलों में
खिलता है जीवन हमारा;
स्टेटस बार पे हँसते हैं
तो स्माइलीज़ बरसते हैं:
झूमता है संसार सारा!

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बागीचा

मेरे घर का है जो बागीचा,
थोड़ा ऊंचा थोड़ा नीचा.

हरी दूब का एक गलीचा,
बड़े जतन से जिसको सींचा.

एक आम का पेड़ खड़ा है,
जिसपर झूला बहुत बड़ा है.

जगह-जगह फूलों की क्यारी
मन को लगती बहुत ही प्यारी.

रंग-बिरंगे फूल महकते,
तितली उड़ती, पंछी चहकते.

खुश कर देता है सबका मन
यह मेरा सुन्दर सा उपवन.

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स्कूल

रोज़ सुबह जब उठते हैं हम
सारे बच्चे नटखट;
नहा-धोकर, वर्दी पहनकर
स्कूल पहुँचते झटपट.

बहुत मज़ा आता है स्कूल में,
हो मित्रों से मेल;
थोड़ी-थोड़ी करें पढ़ाई,
थोड़ा-थोड़ा खेल.

क्लास में टीचर पढ़ा रही है,
पर हम करते दंगल;
गुस्सा होकर टीचर बोली,
“क्या समझा है जंगल?”

“जल्दी-जल्दी कर लो पढ़ाई,
वरना सज़ा मिलेगी;
सब कुछ देख रही हूँ,
कोई बदमाशी ने चलेगी.”

पर टीचर की यह सख्ती भी
हमको लगती प्यारी;
यह फटकार ही हमें कराती
जीवन की तैयारी.

“स्कूल के दिन फिर न लौटेंगे”,
सभी हमें समझाते;
मौज मना लो, और बिता लो
यह दिन हँसते-गाते!

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